जो स्वत: शिष्ट और संयमित न हो उससे शिष्ट एवं संयमित समाज की आशा की ही नहीं जा सकती है । जो स्वत: अनुशासित न हो, उससे अनुशासित समाज की कल्पना करना भी अपने आप को भ्रम में रखना तथा समय और श्रम को व्यर्थ गवाँना है। जो स्वयं सत्यवादी न हो, उससे सत्यवादी समाज की आशा ही बेकार है। जो स्वयं ही धार्मिक नहीं है, उससे धार्मिक समाज की स्थापना सोचा ही नहीं जा सकता है।जो निष्काम, शान्त एवं आनन्द से युक्त न हो, उससे निष्काम, शान्त एवं आनन्दित समाज की स्थापना का विचार करना ही अपने नासमझदारी का परिचय देना है । इस प्रकार इन बातों को मद्देनजर रखते हुए सर्वप्रथम अपने जीवन को शिष्टता, संयमितता और अनुशासनिकता से युक्त करें तत्पश्चात् अधयापन कार्य करें क्योंकि विद्यार्थी पर सबसे अधिक प्रभाव उसके विद्यादाता अध्यापक का ही पड़ता है ।
एक अशिष्ट एवं असंयमित और अनुशासनहीन अध्यापक अधययनशील हजारों हजार विद्यार्थियों को अशिष्ट, असंयमित और अनुशासनहीन बना देगा जिससे कि समाज तथा सामाजिक व्यवस्था पर इतना बुरा प्रभाव पड़ेगा कि बाद में उसे ठीक करना यानी सुधारना एक असाध्य नहीं तो दु:साध्य कार्य तो निश्चित ही हो जायेगा। इसलिए सुव्यवस्थित अमन-चैन के समाज हेतु सर्वप्रथम गुरुजन बन्धुओं को स्वयं ठीक (शिष्ट एवं संयमित) होना-रहना पडेग़ा, अन्यथा प्रशासन का यह प्रथम कर्तव्य होना चाहिये कि ऐसे अशिष्ट, असंयमित और अनुशासनहीन गुरुजन को पद पर या तो नियुक्ति ही न करें और नियुक्ति करना जरूरी हो तो उन्हें ठीक राह पर सुधार कर ला देवे अन्यथा बिना किसी हिचकिचाहट के उन्हें उक्त कार्य से मुक्त कर दे । ऐसा करने में थोड़ी भी एहसान या मरौवत की आवश्कता नहीं है । ऐसे में कुछ गुरुजनवृन्द पर एहसान का अर्थ उनसे सम्बन्धित समस्त विद्यार्थीजन के जीवन के साथ खिलवाड़ करना, घात करना अथवा उन्हें बर्बाद करना होगा ।
----- सन्त ज्ञानेश्वर स्वामी सदानन्द जी परमहंस