हाँ, आजकल मात्र सांसारिक विषय वस्तुओं की जानकारी और उसी अनुसार रहन-सहन ही प्रधान हो गया है । अधिक से अधिक सम्पत्ति कैसे अर्जन हो ? कैसे हमारी साधन सम्पन्नता हो ? यही आजकल की शिक्षा और व्यावहारिकता हो गयी है। आज की शिक्षा कर्म प्रधान व सम्पत्ति प्रधान बनकर रह गयी है । 'करो और भोगो' मात्र। आजकल स्थिति बिगड़ कर यहाँ तक पहुँच चुकी है कि 'करो' को भी महत्व न देकर 'भोगो ही भोगो' वाली हो गयी है । 'करो कम' और 'भोगो अधिक' की स्थिति को ही लोग मर्यादा और प्रतिष्ठा मानने-समझने लगे हैं। अधिकतर लोग ही ऐसे प्रवृत्ति वाले हो गये हैं कि कुछ करना न पड़े, मगर भोग सबसे अधिक और सबसे अच्छा रहे। यही प्रवृत्ति झूठ, बेइमानी, छल-कपट, चोरी-डकैती,लूट-पाट-अपहरण और सभी भ्रष्टाचारों का मूल रूप प्रशासनिक घूसखोरी को उत्प्रेरित करते हुये व्यावहारिक बनाने के लिये मजबूर करती है । राजनेताओं की भी यही स्थिति हो गयी है जो नि:संदेह अराजकता की स्थिति उत्पन्न करते हुये राजनैतिक विघटन, सामाजिक विघटन, पारिवारिक विघटन और यहाँ तक की शारीरिक होता हुआ विनाश तक पहुँचा देती है। वर्तमान में पहुँचाती जा रही है मगर लोग समझ सम्भल नहीं पा रहे हैं बल्कि और ही गिरते ही जा रहे हैं । क्या चेतना-समझना-सम्भलना नहीं चाहिए ? अवश्य ही चेतना-सम्भलना चाहिए ।
आज की शिक्षा जीव को शरीर प्रधान से भी नीचे उतार कर शरीर को भी मात्र सम्पत्ति प्रधान बनाते हुये शारीरिक अस्तित्व को भी समाप्त करती जा रही है । आज भोग वृत्ति अंतिम सीमा तक पहुँच गई है । लड़के की शादी जल्दी हो जाय, भले ही वह न पढ़े। शादी जरूर की जायेगी, भले ही कष्ट से ही सही, भोग ही भोगते हुये संसार में वंश वृध्दि करता हुआ फँसा ही रहे । अपने जीवोध्दार की बात सोच भी न सके ।
----- सन्त ज्ञानेश्वर स्वामी सदानन्द जी परमहंस